कचड़ू देवता निभा रहे आज भी मां से किया एक वादा, देना पड़ता है आज भी मंदिर में सीमा शुल्क


उत्तराखंड को यूं ही देव भूमि नहीं कहा जाता है…यहां के कण-कण में भगवान का वास है और यहां की पौराणिक संस्कृति आज भी जीवित हैं…आज भी यहां आस्था में शक्ति देखी जाती है..उत्तरकाशी के कचड़ू देवता के बारे में कहा जाता है कि यहां से गुजरने वाला हर कोई यहां आशीर्वाद लेता है…नहीं तो किसी ना किसी रूप में अनहोनी हो जाती है…
कचडू देवता का मंदिर
कचडू देवता का एक मंदिर उत्तरकाशी जिले के रनाड़ी गांव में स्थित है……. यह मंदिर बहुत ही सुंदर और प्राचीन है। मंदिर में कचडू देवता की मूर्ति स्थापित है…..
कचड़ू की कहानी
उत्तरकाशी के निकट 150 वर्ष पहले ऐरासुगढ़ के जागीरदार युवक कचड़ू राणा था। कचड़ू को डुंडा की जागीर दी गई थी। बरसाली गांव में कचड़ू की बहन शोभना का सुसुराल था। दीपावली के दिन कचड़ू अपनी बहन को लेने के लिए बरसाली जाता है। लेकिन रास्ते के जंगल में देव लोक की परियां (आछरी) कचड़ू को अपने वश में कर देती हैं। लेकिन, कचड़ू वहां अपनी बूढ़ी मां के लिए व्याकुल रहता है। लेकिन आछरियों ने कचड़ू को शक्ति दी कि रात के समय चुपके से वह अपनी मां की मदद के लिए घर से लेकर खेतों का काम कर सकता है। लेकिन अगर वह कभी मां की नजरों में आ गया तो वह शक्ति वापस हो जाएगी। सपने में आकर यह बात कचड़ू अपनी मां को भी बताता है। लेकिन आखिरकार होता वहीं है, कचड़ू की मां बेटे के प्रेम में डूब कर उसे देखने के लिए छुप जाती है। जिसके बाद कचड़ू अदृश्य हो जाता है और कहता है कि ये तूने क्या किया अब मैं तेरे काम नहीं कर पाऊंगा। लेकिन देवता बनकर लोगों के कष्ट दूर करूंगा………
उत्तरकाशी में डुण्डा स्थित कचडू देवता मन्दिर के बारे में बताया जाता है कि वह हिमाचल प्रदेश के रहने वाले थे और उनकी बहन का विवाह जनपद उत्तरकाशी की बरसाली पट्टी के किसी गांव में हुआ था…एक बार जब वह अपनी बहन को मायके ले जाने के लिए आ रहे थे तो थकान होने के कारण वह डुण्डा में एक पेड़ के नीचे बैठ गये और बांसुरी बजाने लगे बांसुरी की धुन से परियां जिसे स्थानीय भाषा में आछरी मातरी कहा जाता है उन्होंने कचडू को हर लिया और अपने साथ चलने को कहने लगी…पुजारी और स्थानीय लोग बताते हैं कि जब परियों ने साथ चलने को कही तो कचडू ने उनसे वादा किया कि बहन को विदा कर वह खुद ही यहां चला आयेगा..समय बीतता गया कचडू बहन को विदा कर वादे के मुताबिक इस स्थान पर आया और वहां से परियां उसे अपने साथ ले गयी…साथ ही कचडू को वरदान दिया कि आज से पूजे जाओगे और इस रास्ते से निकलने वाला हर व्यक्ति यहां कुछ न कुछ भेंट चढ़ाकर ही आगे बढ़ेगा नहीं तो अनहोनी हो जाएगा..लिहाजा यहां से जाने वाला हर कोई कुछ ना कुछ भेंढ चढ़ाता है…
ड्यूटी ज्वाइंन करने से पहले अधिकारी यहां झुकाने आते हैं सिर
स्थानीय लोग इस बात को मानते हैं कि यहां कोई अधिकारी हो या कर्मचारी जब ज्वाइन करने आता है तो सबसे पहले कचड़ू देवता की पूजा करता है..यहां तक की इस रास्ते से जो भी बारात निकलतीं है उसे यहां पहले तो बकरा काटना पड़ता था पर अब यहां श्री फल चढ़ाना पड़ता है नहीं तो वंश आगे नहीं बढ़ता है….स्थानीय लोगों के पास कई प्रत्यक्ष उदाहरण हैं….गंगोत्री राजमार्ग पर कचडू देवता का मन्दिर होने के कारण चारधाम यात्रा पर आने वाले श्रद्धालुओं के लिए भी यह आस्था का केंद्र है और श्रद्धालु यहां के दर्शन के बाद गंगोत्री धाम रवाना होते हैं..हो सकता है कि आज के समय में इस तरह की मान्यताएं कई लोगों के लिए कोई मायने नहीं रखता है लेकिन यहां के स्थानीय लोग इसे आज भी मानते हैं…
